मिर्ज़ा ग़ालिब 1954
द्वारा
सोहराब मोदी
हम ग़ालिब का इतिहास
थोड़ा बहुत ज़रूर जानते हैं ,पर उनकी शायरी कतई नहीं । न पढ़ी है ,न ही अधिक सुनी है । भला हो जगजीत-चित्रा और गुलजार का जो गा-गा कर थोड़ी बहुत सुना दी । अनायास ही , बिना जाने कि ग़ालिब हैं ,थोड़े बहुत गजल
और शेर और कहीं पढ़ने में आए होंगे । लेकिन
ग़ालिब ने वास्ताव में क्या ,कैसा और क्यूँ लिखा है ,इसका एक आम हिंदुस्तानी को इल्म नहीं है । लेकिन इतना अंदाज़ा ज़रूर है कि नाम
बहुत बड़ा है – असदुल्लाह खान ग़ालिब ।
सोहराब मोदी की यह फिल्म ग़ालिब के करिश्मे को प्रस्तुत करती
है । बहादुर शाह जफर के दरबार में और दिल्ली के गली गलियारों में ग़ालिब की शायरी के
कद्रदान मुट्ठीभर हैं । ग़ालिब की सोच और उर्दू को समझना आसान काम नहीं है । कर्जदार
आसपास मँडराते रहते हैं । पर बीबी का पूरा सपोर्ट है । आखिर कोई तो शह देता ही है तभी
किसी की नाफर्मनियाँ पलती हैं । ग़ालिब साहब इस फिल्म में चौधवीं बेगम से दिल लगा बैठते
हैं । कहानी ऐसे ही रुक रुक कर आगे बढ़ती है,बहाने के तौर पर । प्रयोजन दरससल सिर्फ ग़ालिब
को स्क्रीन पर देखना – दिखाना है ।
भारत भूषण ने शानदार रोल किया है । सुरैया नें चौधवीं बेगम का
किरदार बड़ी अदा और मोहब्बत से निभाया है । इस फिल्म को राष्ट्रपति साहब का मेडल मिला
था सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए ।
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